विचार
सुशासन की नेक नीयत पर अमल
योजनाओं में विधायकों की प्राथमिकताओं का प्रदर्शन जिस तरह से हो सकता है, उससे कहीं भिन्न जमीनी हकीकत का संताप नजर आता है। मुद्दा यहां केवल जनप्रतिनिधियों के कामकाजी मूल्यांकन या जनता के समक्ष किए गए वादों का नहीं, बल्कि उस परिपाटी का है जो बार-बार प्रदेश की भूमिका को बदल देती है। बेशक मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ऐसी प्राथमिक योजनाओं के लटकने-लटकाने से खफा होकर, सरकारी कार्यसंस्कृति को सचेत कर रहे हैं या सीधे निर्देश देकर अधिकारियों को बता रहे हैं, लेकिन हकीकत की पलकें खुलते ही सांझ हो जाती है। यानी बजट की वार्षिक कसौटियों में जो दिखाई देता है या दिखाने की कोशिश होती है, उससे कहीं अलग परिपाटी में लक्ष्यों का निरुपण होता है। ऐसे में सत्ता के भीतर कुछ अपने, कुछ पराये हो सकते हैं, तो विपक्ष की मात्रात्मक शक्ति में घुन सरीखा बर्ताव तो स्वाभाविक है। चुनावी सियासत के लक्ष्य हमारे विकास की कहानियां बदलते रहे हैं और यह भी एक यथार्थ है कि सत्ता बदलाव के सतही प्रयोग, निचले स्तर तक विद्रूप हो जाते हैं। जहां जश्न और सौगात के रूप में शासन पद्धति चलती हो, वहां शिलान्यास व उद्घाटन पट्टिकाओं की सीनाजोरी बेकसूर नहीं। काम करने के तोहफे और काम रोकने के तरीके कमोबेश, प्रदेश की कार्यसंस्कृति के नसीब में पल रहे हैं।
सरकार का अपना तरीका और सत्तारूढ़ दल का अपना हिसाब है, जो बार-बार सुशासन के मायनों को बदल देता है। विधायक प्राथमिक योजनाएं दरअसल सुशासन की नेक नीयत पर ऐसा अमल हो सकती हैं, जिन्हें जनता भी कबूल करेगी, लेकिन सियासत तो वोटर के पन्ने पर हो रही है। पंचायत चुनावों में जब गिनती राजनीतिक पालने की होगी, तो गली-मोहल्ला तो बंटेंगे ही। जहां विधायक और मंत्री के बीच अंतर होगा, तो सत्ता के प्रभाव से सभी विधानसभा क्षेत्रों में असर होगा। बेनतीजा केवल विधायक प्राथमिक योजनाएं ही नहीं, बल्कि हर विभाग की कसौटी से अछूत रहते विधानसभा क्षेत्रों की राजनीतिक हालत है। सरकार के भीतर मंत्रियों की प्राथमिकताएं एक अरसे से अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों तक सिमट रही हों, तो अधिकारी कैसे न्याय दिला पाएंगे। उन्हें तो सुशासन के ठंडे बस्ते तैयार करने पड़ते हैं और यह कौशल संगीन गुनाह से कम नहीं। ऐसी बहुत सारी परियोजनाएं गिनी जा सकती हैं जो सत्ता प्राथमिक होकर संसाधनों का अपव्यय बन जाती हैं या विपक्ष के काम को खुर्द-बुर्द करने की सोच ने हिमाचल के बीच रिश्तों का तनाव खड़ा किया है। पारदर्शिता का अभाव या सत्ता के प्रभाव को अंकित करती प्राथमिकताओं के कारण हर बार प्रदेश बंटता है और फिर क्षेत्रवाद के हर द्वंद्व में लील तो योजना-परियोजना को ही होना पड़ता है। फाइल पर हस्ताक्षर बदलने का अर्थ ही अगर सत्ता का मिजाज हो जाए, तो कार्यसंस्कृति का बहुरुपियापन हमारा नसीब हो जाएगा। यहां जिक्र भले ही विधायक प्राथमिकताओं से शुरू हो रहा है, लेकिन पूरे हिमाचल के शिलान्यासों का सच पता किया जाए, तो इनके गुण-दोष सामने आ जाएंगे। दरअसल विधायकों के काम उन्हीं कसौटियों पर निर्भर करते हैं, जिनसे पूरा प्रदेश अपना हुलिया बदलना चाहता है।
विभागीय समीक्षाएं, प्रदेश के लक्ष्य और बजट आबंटन बता सकता है कि कथनी और करनी में कहां अंतर है। बहरहाल फिर से सरकार के सख्त निर्देश उसी झंझावत में दिखाई देते हैं, जो हर साल योजना बोर्ड की बैठकों का वास्तविक सच है। यानी विकास के लाभ तो सदा-सदा पक्ष और पक्ष में बंटे हैं। इतना ही नहीं विकास के श्रेष्ठ लाभ सत्ता के श्रेष्ठ अवतार की तरह बंटे हैं। यही वजह है कि जिस डीपीआर का उल्लेख विधायक प्राथमिक योजना को कमजोर बता रहा है, वही परिमाण प्रदेश के राजनीतिक दस्तूर की कहानी बन जाता है। जाठिया देवी टाउनशिप की मिलकीयत में पलती सियासत या सत्ताओं को ही देख लें। जिस डीपीआर पर कांग्रेस की सत्ता एक उपग्रह शहर बनाने का संकल्प ले रही थी, वही आज की स्थिति में लावारिस उद्देश्य की झूठन बन चुकी है। ऐसे अनेक फैसले और परियोजनाएं सचिवालय की फाइलों में दफन हैं जिनकी डीपीआर बनाने का कौशल समस्त विभाग साबित कर चुके हैं। यही पीडब्ल्यूडी अगर फोरलेन परियोजना की डीपीआर बना सकता है, तो किसी ग्रामीण सड़क के ओर छोर पर क्यों अपनी ड्राइंग बनाते-बनाते कांप जाता है। प्रदेश में डीपीआर बनाने के रास्ते पर सबसे दोषी अगर कोई है, तो वन विभाग के वर्तमान औचित्य को खंगालना पड़ेगा। दूसरा सरकार के समस्त मंत्री बताएं कि उन्होंने प्रदेश के लिए ऐसी दस बड़ी योजनाएं-परियोजनाएं कौन सी बनाईं तथा अपने विधानसभा क्षेत्र में उनके विभाग का बजट किस तरह कारगर सिद्ध हुआ।