नैनीताल। मुख्यालय के समीपवर्ती ग्राम बसगांव चोपड़ा निवासी औषधीय पौधों के संरक्षण में जुटे एक किसान ने वह कार्य कर दिखाया है, जो लाखों रुपये खर्च कर सरकारी विभाग, एजेंसियां व शोध संस्थान कई दशकों में नहीं कर पाये हैं। उनकी यह उपलब्धि देश के लिए बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा के अर्जन का माध्यम भी बन सकती है।
जनपद के निकटवर्ती ज्योलीकोट के पास गिरजा हर्बल कल्याण समिति चलाने वाले संस्था के अध्यक्ष 65 वर्षीय पूरन चंदोला ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक तौर पर उगने वाली, लगभग विलुप्त हो चुकी, दुर्लभ प्रजाति में सम्मलित औषधि प्रजाति सतुवा (वैज्ञानिक नाम पेरिस पालींफिला) को घाटी क्षेत्र में उगा और उसका संरक्षण और संवर्धन कर मिसाल कायम कर दी है।
उल्लेखनीय है कि सतुवा को आईयूसीएन यानी अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ द्वारा संकट ग्रस्त और विलुप्त औषधीय प्रजाति में शामिल कर चुकी है, और इसके संरक्षण कार्य को पिछले कई दशकों से सरकार और उसकी शोध में जुटे विभाग, एजेंसियां व शोध संस्थान नहीं कर पाए हैं। चंदोला ने 7 वर्षों की अथक मेहनत के बाद यह उपलब्धि हासिल की है। वन अनुसंधान केंद्र गांजा के प्रभारी मदन सिंह बिष्ट ने इस कार्य की सराहना करते हुए बताया कि विभागीय स्तर पर भी इस पर शोध कार्य किये जा रहे हैं। चन्दोला का कहना है कि यदि सरकार इसके प्रोत्साहन हेतु सहायता देती हैं तो इसका वैज्ञानिक विधि से सत्व निकाल कर विदेशी मुद्रा का अर्जन किया जा सकता है और पलायन के दंश झेल रहे प्रदेश में रोजगार का सशक्त माध्यम बन सकता है।
करिश्माई औषधि है सतुवा
सतुआ या सतुवा कही जाने वाली यह वनस्पति औषधीय गुणों से भरपूर होती है। इसका उपयोग जहरीले कीड़ों, साँप आदि के काटने, जलने, चोट लगने, मादकता, खुजली, जोड़ों के दर्द, आर्थोराइटिस आदि रोगों की आयुर्वेदिक और होम्योपैथी दवाओं में होता है। शोधों से यह बात भी सामने आयी है कि सतुवा को किसी दवा में मिला देने से उस दवा की प्रभावकारी शक्ति में कई गुना बढ़ोत्तरी हो जाती है। चीन में स्वाइन फ्लू के उपचार में भी इसका प्रयोग किया जाता है। इस पौधे से प्राप्त कंद का बाजार मूल्य सामान्यतः दस हजार रुपये प्रति किलो तक है।
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक तौर पर उगती है सतुवा
सतुवा उच्च हिमालयी के ठंडे, नमी वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली एक औषधि है, जो चीन, ताइवान व नेपाल सहित देश में उत्तराखंड, मणिपुर व सिक्किम में पायी जाती है और प्राकृतिक आबोहवा में ही पैदा होती है। अंधाधुंध विदोहन से यह विलुप्ति के कगार पर है। इस कारण इसे अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ और आयुष मंत्रालय द्वारा विलुप्त और दुर्लभ श्रेणी में रखा गया है।
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