कला और संस्कृति
Mirza Ghalib: मिर्जा गालिब के वो जबरदस्त शेर जो अमर हैं

गालिब की मां शिक्षित थीं उन्होंने गालिब को घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। गालिब ने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान 'मौलवी मोहम्मद मोवज्जम' से फारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की।
वह कुछ दिन लाहौर रहे, फिर दिल्ली चले आए। क़ौकान बेग के चार बेटे और तीन बेटियां थीं। इतिहास के पन्ने पलटें तो उनके बेटों में अब्दुल्लाबेग और नसरुल्लाबेगका वर्णन मिलता है। गालिब अब्दुल्लाबेग के ही पुत्र थे। जब गालिब पांच साल के थे, तभी पिता का देहांत हो गया। पिता के बाद चाचा नसरुल्ला बेग खां ने गालिब का पालन-पोषण किया। नसरुल्ला बेग खां मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे।
गालिब की मां शिक्षित थीं उन्होंने गालिब को घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। गालिब ने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान 'मौलवी मोहम्मद मोवज्जम' से फारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। गालिब की कम ही समय में फारसी में गजलें भी लिखने लगें थे। आज हम आपको उनके कुछ मशहूर शेर पढ़ाएंगे।
-हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
-मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
-हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
-उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
-ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
-रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
-इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
-न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
-रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
-आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
-बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
-हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
-रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
-बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
-काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
-दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
-कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
-क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
-कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले